Saturday 22 August 2015

फकीरी कलंदरी ये आवारगी ‘नादाँ’ .....




jay bastriay - arku
मेरे जेहन में रोज कोइ आता है
इक सांप केंचुली  छोड़ जाता है 

गाँव रोजगार को वीरान क्या हुई
पतझड़ भी यूँ मुह मोड़ जाता है 

गिरती छत सम्हले कैसे मकाँ की
कोइ रहन की दिवार तोड़ जाता है

दर्द उबल  जब्त की  सरहद से परे
दरिया वो जो किनारा फोड़ जाता है

फकीरी कलंदरी ये आवारगी ‘नादाँ’
जिन्दगी कब   कफन ओढ जाता है

Thursday 20 August 2015

वो तितली चाँद जुगनू गज़लें ये किताबें ....


जय बस्तरिया 16.08,2015
उन आँखों के शबनमी बूंदों को देखा है
इन लम्हों में मैंने आसमां को समेटा है

दूर तक पीछा करता वो अधुरा चाँद था
उसकी चांदनी भी इक भरोसे ने लुटा है

मै दरिया हूँ बस समन्दर मेरी मंजिल
पर हसींन मोड़ ने हर मोड़ पर रोका है

कागज पर लिख इश्क खूब मिटा दिया
इश्क ने मुझे बस इतना दिया धोखा है

गुजरा क्या चाँद मेरे शहर से लुट गया
इस बस्ती ने किया हर इक से धोखा है

वो तितली चाँद जुगनू गज़लें ये किताबें
दुनिया में मुझको बस इतने ने रोका है

मुख्तसर सी बात है सवाल-ए-हक़ 'नादाँ'
इस मुख़्तसर सी जिद में खुद को झोंका है

16.08.2015

 

किताबों में रिवाजों में कायदों का लहू बिखरा ...

जयबस्तरिया 15.08.2015

तवायफ़ और  सियासत  में ये फर्क है  यारों
तवायफ़ रिज्क से ये सियासत लुट खाती है

बड़ी रंगीन तबीयत है वतन में इस खादी की
हादसों का मजमा लगा पूरा लुत्फ़ उठाती है

छीन कर रोटी हम मुफलिसों की जलालत से
हमारी बेबसी को जहालत इल्जाम लगाती है

सूखे होंठों और भूखे आँखों के हर प्रश्न पर ही
सियासत नई बगावत का इल्जाम लगाती है

किताबों में रिवाजों में कायदों का लहू बिखरा
तमगों औ तिजोरी का बस ये भूख मिटाती है

पसीने की हर बूंद चमके बस इनके आँखों में
मेहनत से थके कांधो पर ये बाज़ार उगाती है

तहरीरों वादों और इरादों का कागजी इन्कलाब
रहनुमाओं के उगाल से हर नाली बजबजाती है

जेहनो में मुद्दे उगाती सियासत है बहुत ‘नादाँ’
ये अश्क-ओ-भूख भी पत्थरों में आग लगती है
 ......

15 अगस्त 2015,
 कभी-कभी कुछ लिखता हूँ ......
आज शहीदों को सलाम करने के बाद ......स्वतंत्रता दिवस की शाम को दिल करता था कुछ उल्लास से भरा लिखूं .......लाख कोशिश की ......पर अन्दर का दर्द ही तो कविता बनती है |..........