इक सांप केंचुली छोड़ जाता है
गाँव रोजगार को वीरान
क्या हुई
पतझड़ भी यूँ मुह मोड़ जाता है
गिरती छत सम्हले
कैसे मकाँ की
कोइ रहन की दिवार
तोड़ जाता है
दर्द उबल जब्त की सरहद से परे
दरिया वो जो किनारा
फोड़ जाता है
फकीरी कलंदरी ये आवारगी
‘नादाँ’
जिन्दगी कब कफन ओढ
जाता है